तुम कब वापस जाओगे मेघराज

डॉ मुकेश असीमित
हे बूंदों के बादशाह ,बरसाती महाराज !ये तीसरा महीना है ,धरा को अपनी बौछारों से संवर्धित और पल्लवित करने वाले मेघ राजाओं अब बस भी करो ।धरा को थोड़ी सांस भी तो लेने दो… ,थोड़ी धुप की भी जरूरत है.. । तुम्हारी सतत उमड़-घुमड़ कर ताबड़तोड़ पड रही डरावनी बौछारें हमारे तन-मन के अंतरमन को झकझोर रही हैं। हे उमड़े और बार बार घुमड़े बादलों तुमने तो हमारी जीवन प्रणाली को ही उमड़ घुमड कर दिया है । हे मेघराज, आखिर तुम कब जाओगे? माना कि तुम हमारे अतिथि हो और तुम्हारे स्वागत में न जाने कितने कवियों,चारणों और भाटों ने कविताएँ मांडी ,गढ़ी.. और पढ़ी, मेंढक-मेंढकी के ब्याह जैसे टोटके किए, और मेरे जैसे व्यंग्यकारों ने तुम्हारे जिद्दी बादलों के उपर व्यंग्य के तीर छोड़े, ताकि तुम भी सूखे बाणों की शर शैया पर पडी धरती को तृप्त कर सको। पर तुम तो यहाँ उस अतिथि की तरह जम गए हो जो वापस जाने का नाम ही नहीं ले रहा।हमारी आत्माएँ गुहार लगा रही हैं, “हे मेघ अविरल धारा-पुरुष.., अब लौट जाओ। अगले साल फिर आना।” अब तो साल भी पूरा नहीं बचा.., बस नौ महीने के बाद आ जाना। फिलहाल जिन गधों से शमशान में हल चलवाए थे, उन्हें वापस बोझा ढोने के काम में लगा दिया है। जिन मेंढक-मेंढकी की शादी करवाई थी, उनका तलाक करवा दिया है । जिन शिवलिंगों को पानी में डुबो रखा था, उन्हें बमुश्किल निकालकर पहाड़ी के मंदिरों में स्थापित किया है। मंदिर में जो खाली मटके गाड़े थे, उन्हें भी उखाड़ लिया है। दूल्हों को सख्त हिदायत दी है कि अब गधों पर कोई सवारी नहीं निकलेगी। सारे टोन टोटके जो किए थे, उन पर कडा प्रतिबंध लगा दिया है।मुझे पता है, जलझड़ महारथी ! तुम बादल-बदली अपने प्रेमालाप में कुछ ज्यादा ही खो गए हो और तुम्हारे प्रेमालाप के समुद्र मंथन से निकला ये प्रेम रस बारिश रूप में जो टपक रहा है ,इसे समेटने के लिए लगता है वापस शंकर भगवान् से गुहार लगाने पड़ेगी । ताकि वो इसे अपनी जटाओं में समेट सके । अब अपनी प्रेमकहानी को विराम दो और वापस अपने लोक को लौट जाओ। मुझे ऐसा लगता है कि तुम्हारा विभाग भी हमारी सरकारी व्यवस्थाओं की तरह काम करता है। जैसे बिजली के खंभे की लाइटें ,ऑफिस के पंखे ,बाथरूमों में लगी टोंटी अगर खुली रह जाए तो उसे बंद करने का कोई नाम नहीं लेता, वैसे ही तुमने भी बरसात की टोंटी खुली छोड़ दी है। पर अब बंद भी कर दो । यहाँ तो वैसे भी नलों में पानी नहीं, बल्ब में रोशनी नहीं, पंखे बिना बिजली के जंग खा गए हैं। उन्हें चाहे खुला छोड़ दो या बंद कर दो, कोई फर्क नहीं पड़ता।घर में तुम्हारे स्वागत में कई दिन तक बेसन के पकौड़े तल लिए गए थे । अब गृह्स्वामिनियों ने भी हड़ताल कर दी है । अब घर का बेसन और तेल का राशन खत्म हो चुका है और जनता फिर से सूखी दाल और रोटी पर आ गई है। बाढ़ राहत वालों पर तुमने मेहरबानी कर ही दी है, उन्होंने अग्रिम रूप से ही बाढ़ का अंदेशा लगाकर राहत बजट की बंदरबांट कर ली है । अब अगले साल की बाढ़ का बजट अगले साल ही आएगा ना।पिछले दस दिनों से घर में मुटिया गया मैं ,सुबह सुबह बिस्तर पर औंधे मुह पड़ा, मेरी पत्नी के लिए सिरदर्द बन चुका हूँ । मॉर्निंग वॉक पर न जाने का बहाना तो मैं और भी मार सकता था । मैंने तो तुमसे नहीं कहा था कि तुम सुबह-सुबह बरसकर मेरे मोर्निंग वॉक में बाधा डाल दो। आज तो मुझे घर से धक्के मारकर निकाल ही दिया गया था .., और तुम हो कि मुझ पर हंसते हुए बरस रहे हो।जुकाम, खांसी, वायरल सब फैला दिए हैं । अब कुछ मौका डेंगू और मलेरिया के मच्छरों को भी दे दो, उन्हें भी पनपना है। वे इस बहते हुए पानी में नहीं पनपते, उन्हें ठहरा हुआ बदबूदार पानी चाहिए। सड़क के गड्डे और नालियां भी लबालब भर कर बस इन मच्छरों का पलक पांवड़े बिछाकर इंतज़ार कर रहे हैं । बरसकर शहर की सडकें साफ़ हो चुकी है ,मेरा मतलब इतनी साफ़ की नजर ही नहीं आ रही ।रह गए तो सिर्फ गड्डे जो अदालत की तारीखों की तरह चीख चीख कर कह रहे हैं-मी लार्ड रह जायेंगे तो सिर्फ ये गड्डे … । नदियों नालियों से निकलकर मगरमच्छ, सांप, बिच्छू सब घरों में घुस आए हैं। जनता समझदार है, ये नेताओं को पाल सकती है, तो सांप ,बिच्छुओं ,मगरमच्छों को पालना कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन हे छत्रपति वर्षाधिपति! तुमने तो अपनी असली औकात दिखा ही दी है न ।
हे जल सम्राट ! मयूरों की टाँगे नांच-नाच कर थक चुकी है , पपीहे गा-गा कर अपना गला खराब कर चुके हैं। उनका तो गले का बीमा भी नहीं होता..। उन पर रहम खाओ। वर्ल्ड रिकॉर्ड वालों ने क्या तुमसे कुछ संधि कर ली है…, कोई नहीं ..! लेकिन अब तो सारे रिकॉर्ड बन चुके हैं। देश की नदियाँ, नाले, तालाब सब लबालब हो गए हैं । ये ही सुनना चाहते थे न की ‘पिछले २ दशक में नहीं देखी गयी ऐसी बरसात … ।‘ लगता है , तुम्हे भी ब्रेकिंग न्यूज़ का चस्का लग गया …लेकिन इन चैनल वालों पर भरोसा नहीं करो …! जिस प्रकार से ये तुम्हे अपनी न्यूज़ में सजायेंगे ,उस से ज्यादा बुरी तरह से तुम्हे भूल भी जायेंगे ..ऐसे छिटकायेंगे जैसे की तुम तो कभी मुद्दा थे ही नहीं..ये कब किसकी गोदी बैठ जाएँ कोई भरोसा नहीं ..! अब तो दया करो।हे वृष्टि सम्राट ! मैं जानता हूँ कि अतिथि का स्वागत पलकों पर बिठाकर किया जाता है। ‘अतिथि देवो भव ।‘ लेकिन मैं तो अभागा इंसान हूँ, मुझ पर रहम करो। देवता भी दर्शन देकर और वरदान देकर चले जाते हैं । तुम भी अपना देवत्व निभाओ । अब तुम भी जाओ!
रचनाकार –डॉ मुकेश असीमित
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